भारत में बाकी कुछ हो न हो चुनाव नियमित रूप से होते हैं। हर दो - चार महीने में कहीं न कहीं, कोई न कोई चुनाव हो ही जाता है। यहाँ चुनाव का मौसम फिर आ रहा है। शहर से लेकर गांव तक का माहौल गर्म है। हर तरफ राजनीति ही चर्चा का विषय बनी हुई है। चूँकि भारत एक नेताप्रधान देश है इसलिए यहाँ बच्चा चलना बाद में सीखता है, नेतागीरी पहले.. पीएचडी डिग्री धारकों से लेकर बीपीएल कार्ड धारकों तक हर कोई चुनाव विश्लेषक बने हुए हैं, और भारतीय राजव्यवस्था के बारे में हर किसी के पास एम. लक्ष्मीकांत के टक्कर की इल्म है। इनमें से कुछ लोग स्वयं को भैया जी का खास बताते हैं. ये भैया जी के छुटभइये होते हैं जो नेताजी के द्वार पर सुबह से हाजिरी देने पहुंच जाते हैं और उनके दर्शन का इंतजार करते हैं. जैसे ही भैया जी नित्यकर्म से निवृत्त हो चाय पीते हुए बाहर आते हैं, ये दांत निपोरते हुए उनके चरणों में साष्टांग लोट जाते हैं.. गांव में जब भी कोई बड़ा नेता आता है अथवा ये किसी नेता के रैली में शामिल होने शहर जाते हैं तो इनकी कोशिश होती है कि भीड़ में धक्के, मुक्के या रहपट - लात खाकर चाहे जैसे भी हो उनके करीब पहुंच जायें और एक जबरदस्ती का सेल्फी ले लें ताकि गांव वालों को दिखाकर कह सकें कि नेताजी ने स्वयं बुलाकर साथ में फोटो खिंचवाया है। हाथ जोड़े मुद्रा में नेता जी और मोबाइल धारी मुद्रा में स्वयं की फोटो वाली बड़ा सा फ्लेक्स छपवाकर बस स्टैंड में लगवा देंगे और रोज आत्ममुग्धता से खुद ही निहारेंगे। रात की सभा में चार निठल्लों को जुटाकर ये धीमी आवाज में गोपनीय जानकारी देंगे और कहेंगे कि सिर्फ इन्हें ही भैया जी ने अपना खास आदमी समझ कर बताया है कि मंत्री जी से इतना पैसा मिल गया है, इतने पेटी 'चेपटी' पहुंच चुकी है, पार्टी किसका काटेगी (टिकट) और कौन बगावत करेगा, किस विपक्षी नेता का चक्कर किससे चल रहा है और कब फोटो-वीडियो लीक होने वाला है आदि - इत्यादि।
इधर नेताजी की भी चिंता बढ़ी हुई है... लेकिन संपत्ति और तोंद उससे कहीं ज्यादा बढ़ गई है। अब उन्हें भी खुद से ज्यादा अपने लंपटों पर भरोसा है इसलिए ये भी उन्हें थोड़ा भाव देने लगे हैं; जैसे चाय - पानी के लिए पूछ लेना, नाम के आगे भाई लगाकर संबोधित करना, कुछ खर्चा-पानी उपलब्ध करा देना आदि। इतने से चचा जान खुद को खलीफा समझ बैठते हैं और स्वयं को आगामी पंचायत चुनाव में भैया जी समर्थित सरपंच प्रत्याशी घोषित कर देते हैं।
मन के घोड़े हवा में दौड़ाते हुए जब ये घर पहुंचते हैं तो इनकी अम्मा झाड़ू लेकर दौड़ाती है और कहती है - "रोगहा नइ तो कांहि काम धाम करे बर नइ हे अउ नेता बने फिरत हस, कोठार ल कोन तोर ददा छोलही. जब तक कोठार नइ छोलाही खाय बर पसिया तक नइ मिलय.. "
अब मन के घोड़े गधे का रूप धारण कर चुके हैं और भावी सरपंच महोदय 'कोठार छोल' रहे हैं।
साभार
दीपक दुबे
राजनीतिक व्यंग्य कार और सामाजिक विश्लेषक